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भाग २
माताजी
माताजी
पृथ्वी के आरंभ से, जब कभी ओर जहां कहीं ' चेतना ' की एक किरण को अभिव्यक्त करने की संभावना थी, मैं वहां मौजूद थी ।
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तुम्हारे साथ जो अब बोल रही है, वह भगवान् की निष्ठावान् सेविका है । हमेशा से, धरती के आरंभ से, भगवान् की निष्ठावान् सेविका के रूप में वह अपने ' स्वामी ' के नाम पर बोलती आयी है । और जब तक धरती रहेगी, मनुष्य रहेंगे, वह दिव्य वाणी का प्रचार करने के लिए शरीर में विधामान रहेगी ।
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तो, जब कभी मुझसे बोलने के लिए कहा जाता है, मैं भगवान् की सेविका के रूप में, अपना अच्छे-से- अच्छा करती हूं ।
लेकिन किसी सिद्धार्थ-विशेष के नाम से बोलना या किसी मनुष्य के नाम से बोलना, वह चाहे कितना भी महान् क्यों न हो, यह मुझसे न होगा!
'शाश्वत परात्पर ' मुझे मना करते हैं ।
१९१२
* ३७ मैं और मेरा पन्थ
मैं किसी राष्ट्र की, किसी सभ्यता की, किसी समाज की, किसी जाति की नहीं हूं, मैं भगवान् की हूं ।
मैं किसी स्वामी, किसी शासक, किसी कानून, किसी सामाजिक प्रथा का हुक्म नहीं मानती, सिर्फ भगवान् का हुकुम मानती हूं ।
मैं उन्हें संकल्प, जीवन, स्वत्व, सब कुछ अर्पण कर चुकी हूं; अगर उनकी ऐसी इच्छा हो, तो मैं सहर्ष, बूंद-बूंद करके, अपना सारा रक्त देने को तैयार हूं; उनकी सेवा में कुछ भी बलिदान नहीं हो सकता, क्योंकि सब कुछ पूर्ण आनन्द है ।
जापान, फरवरी १९२०
* मैं अपने मिशन के बारे में कब और कैसे सचेतन हुई
मुझे धरती पर जो मिशन पूरा करना था उसके बारे में मैं कब और कैसे
३८ सचेतन हुई और मैं कब और कैसे श्रीअरविन्द से मिली?
तुमने ये दो प्रश्न पूछे थे और मैंने संक्षिप्त उत्तर देने का वचन दिया था । मिशन के ज्ञान के बारे में यह कहना कठिन है कि वह मुझे कब मिला । यह तो ऐसा है मानों मैं उसे लेकर ही पैदा हुई थी । मन और मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ इस चेतना की सुनिश्चितता और पूर्णता का भी विकास हुआ ।
ग्यारह से तेरह की उम्र में बहुत-सी चैत्य और आध्यात्मिक अनुभूतियों ने मुझे न केवल भगवान् का साक्षात्कार कराया बल्कि यह भी बताया कि मनुष्य उनके साथ एक हो सकता है, अपनी चेतना और क्रिया मे समग्र रूप से उन्हें पा सकता है और धरती पर उन्हें दिव्य जीवन मे अभिव्यक्त किया जा सकता है । मेरे शरीर की निद्रावस्था में कई शिक्षकों ने मुझे यह शिक्षा दी और उसे समापन्न करने के व्यवहार्य अनुशीलन भी बताये । इनमें से कुछ के साध मैं बाद में भौतिक स्तर पर मिली भी ।
बाद में, जैसे-जैसे आन्तरिक और बाह्य विकास होता गया, इनमें से एक सत्ता के साथ आध्यात्मिक और चैत्य सम्बन्ध अधिकाधिक स्पष्ट और बारम्बार होते रहे; यद्यपि उस समय मैं भारतीय धर्मों और दर्शन के बारे मे बहुत कम जानती थी, फिर भी किसी-नकिसी अज्ञात कारण से मैं उसे कृष्ण कहती थी, और उस समय से मुझे यह भान हों गया था कि मुझे उन्हीं के साथ भागवत कार्य करना हैं (मुझे पता था कि मैं एक-न-एक दिन पृथ्वी पर उनसे मिलूंगी) ।
१९१० में मेरे पति अकेले पॉण्डिचेरी आये जहां, बहुत मजेदार और अनोखी परिस्थितियों में, श्रीअरविन्द के साथ उनका परिचय हुआ । तभी सें हम दोनों भारत आने के लिए बहुत इच्छुक थे-भारत को हो मैंने अपनी सच्ची मातृभूमि माना था । १९१४ में हमें यह आनन्द प्रदान किया गया ।
जैसे ही मैंने श्रीअरविन्द को देखा, मैं पहचान गयी कि यह वही सत्ता है जिसे मैं कृष्ण कहा करती थी... । और यह इस बात को समझाने के लिए काफी है कि मुझे यह पूरा विश्वास क्यों है कि मेरा स्थान और मेरा कार्य उनके साथ यहां, भारत मैं, है ।
पॉण्डिचेरी
,१९२० *
३९ हे मेरे प्रभो, मेरे प्रभो!
तुम मुझसे जो चाहते हो, मैं वही बनूं । तुम मुझसे जो करवाना चाहते हो, मैं वही करूं ।
२० जून, १९३१
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मेरे प्रभो, तूने मुझे जो काम दिया हे, मैं उससे बचने की कोशिश नहीं करूंगी । तू मेरी चेतना को जहां कही रख दे वह आनन्दमय शिखरों तक उठने की कोशिश किये बिना वही रहेगी । अगर तू उसे अत्यधिक भौतिक प्रकृति के कीचड़ मे रखना चाहे, तो वह वहीं शान्ति सें, आराम से रहेगी । लेकिन वह जहां कहीं हो, वह तेरी ओर अभीप्सा किये बिना, तेरे प्रभाव की ओर खुले बिना ओर तुझे अपने अन्दर अपनी सत्ता की एकमात्र सद्वस्तु के रूप में आने के लिए पुकारें बिना नहीं रह सकती ।
७ मार्च, १९३२
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प्रभो, किस उत्साह के साथ चेतना भौतिक स्पन्दनों की कारा से बच निकलने और तेरी निर्मल ऊंचाइयों की ओर उड़ने की अभीप्सा करती है!
लेकिन उड़ना असम्भव है... यह तेरी 'इच्छा ' के विरुद्ध है । चेतना को इस अंधेरी और अज्ञ प्रकृति के कीचड़ मे फंसे रहना पड़ेगा । यह बिलकुल ठीक हैं; त जो चाहता है वही होने और वही करने का आनन्द सभी आनंदों से बढ़कर है, सबसे उदात्ता आनन्द तक से भी ।
लेकिन चेतना पुकार उठती है : '' मैं तुझे चाहती हू, मैं तुझे चाहती हू;
तेरे बिना मैं कुछ भी नहीं हू, मेरा अस्तित्व तक नहीं है!'' और इस
पुकार का स्पन्दन इतना जोरदार है कि यह भारी- भरकम 'जडू-तत्त्व ' तक
उससे हिल जाता है । '' मैं तुझे चाहती हू, मैं तुझे चाहती हू! चूंकि तू
मुझे उछल कर अपने पास तक नहीं आने देता, जिससे मैं सब कुछ पीछे छोड्कर
तेरे साथ रह सकूं, इसलिए मैं तुझे यहीं से पुकारूंगी; और मैं तुझसे
इतनी अनुनय-विनय करूंगी कि तू नीचे आकर अपने- आपको ऐसे जगत् मे भर देगा
जो अन्ततः: तेरी ' उपस्थिति ' की चरम आवश्यकता के प्रति जाग गया ४० हे । '' और इस आह्वान का स्पन्दन इतना तीव्र था कि अंधेरे और बेडौल पिण्ड में से ' प्रियतम ' के आने की घोषणा करती हुई प्रथम थिरकन पैदा हुई ।
८ मार्च, १९३२
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हे मेरे ईश, तूने मुझसे कहा है : '' ' जडुद्रव्य ' में डुबकी लगाओ और अपने- आपको उसके साथ एक कर दो : मैं वही पर अभिव्यक्त होऊंगी ।''
और तेरी इच्छा पूरी कर दी गयी है-लेकिन ' जडू-द्रव्य ' ने इस उपहार की अवहेलना कर दी हे और अंधेरी ओर मिथ्या चेष्टाओं एवं सम्बन्धों में वह सन्तोष पाने पर आग्रह कर रहा है जो उसे वहां नहीं मिल सकता ।
फिर भी तूने मुझे ' विजय ' का वचन दिया है...
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हे प्रभो, मेरी सारी सत्ता को जगा दे ताकि वह तेरे लिए आवश्यक यंत्र, तेरा सच्चा सेवक बन सके ।
२७ मार्च १९३६
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में धरती पर, भौतिक जगत् मे क्या लाना चाहती हू :
१. पूर्ण ' चेतना ' । २. सर्वांगीण ' ज्ञान ', सर्वज्ञता । ३. अज्ञेय शक्ति, अप्रतिरोध्य, अपरिहार्य, सर्वशक्तिमत्ता । ४. स्वास्थ्य, पूरी तरह स्वस्थ, नियमित, अचलायमान और सदा नयी होनेवाली ऊर्जा । ५. शाश्वत यौवन, निरन्तर विकास, बाधाहीन प्रगति । ६. निंद्य सौन्दर्य, जटिल और समग्र सामंजस्य । ७. अखूट, अतुल समृद्धि, इस जगत् के समस्त धन-वैभव पर अधिकार । ८. रोगमुक्त करने और सुख देने की क्षमता ।
९. सभी दुर्घटनाओं से रक्षा, सभी विरोधी आक्रमणों से अभेद्यता । ४१ १०. सभी क्षेत्रों ओर सभी क्रिया-कलापों में अपने- आपको व्यक्त करने की निपुण क्षमता । ११. भाषाओं का उपहार, अपनी बात सभी लोगों को पूरी तरह समझा सकने की क्षमता । १२. और तेरे कार्य की सिद्धि के लिए जो कुछ भी जरूरी हो वह सब ।
२३ अक्तुबर १९३७
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मैं चाहती हूं
१. व्यक्तिगत रूप से परम प्रभु की शाश्वत पूर्णाभिव्यक्ति होना । २. कि अतिमानसिक विजय, अभिव्यक्ति और रूपान्तर तुरंत हो जायें ।
३. कि
समस्त दुःख वर्तमान और भावी जगत् से हमेशा के लिए गायब हो जायें । ४२ |